Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ३८४
५६. ।मसंदां दा ग़ोर। गुरू दी भाल॥
५५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>
दोहरा: केतिक दिन बीते जबै, देश बिदेश अशेश।
आइ संगतां चहुदिशनि, ले अुपहार विशेश ॥१॥
चौपई: सतिगुर को दिज़ली महि जानहि।
श्रम बड धारि आइबो ठानहि।
अधिक थकति हुइ पहुचैण जबै।
गुर बिकुंठ गे सुनि सुनि सबै ॥२॥
दीरघ सास लेति रुदनते।
भाग बिहीन न गुर दरसंते।
अधिक मेल हम खरचन कीनि।
वसतु अजाइब तहि ते लीनि ॥३॥
अरपहि गुर प्रसंनता लैहैण।
भई निफल अबि किस को दैहैण।रिदे बिसूरति दुखि सिख सारे।
-आइ दूर, नहि गुरू निहारे ॥४॥
किस ते मनो कामना पावैण।
किस आगे हम सीस निवावैण।
सकल शरीक जि सोढी अहैण।
गुर घर के द्रोही नित रहैण ॥५॥
प्रथमे प्रिथीए बैर कमायो।
चितवति बुरा प्रलोक सिधायो।
धीरमज़ल ते आदिक और।
गुर बनि रहे आपनी ठौर ॥६॥
गुरू बंस महि इक इह जनमे१।
सहस गुने घट, नहि गुन मन मैण२।
गुर सम अग़मत तौ कित पईयति।
चहैण मनौत इही इक लईयत३ ॥७॥
रामराइ गुर को सुत जेठा।
१भाव गुरबंस विच इक जनम लैं मात्र ही इन्हां (धीरमज़ल आदिकाण) दा संबंध है।
२(श्री गुरू जी नालोण) हग़ार गुणां घज़ट हन, मन विच (कोई) गुण नहीण।
३इक इही चाहुंदे हन कि मनौतां लईए।