Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) ३८३
४१. ।भाई दया सिंघ वलोण करम निरणय॥
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दोहरा: नित प्रति बैठहि सिंघ ढिग
रहिंी रहित बताइ।
भगत गान की बारता
सुनहि सदा चित लाइ ॥१॥
चौपई: सभि सिज़खन बूझे कर जोरि।
प्रानी करम बंध पर घोर१।
तिन को२ निरना करहु सुनावन।
जिस के जानहि करहि बचावन३ ॥२॥श्री मुख ते सभिहूंनि अुचारा।
दइआ सिंघ मम रूप अुदारा।
करहु प्रशन जेतिक रुचि होइ।
अुज़तर कहै सकल ही सोइ४ ॥३॥
इम कहि कै गुर अंतर गए।
अपर सरब तहि बैठति भए।
निरनै करन बिखै चित दयो।
दया सिंघ तबि बोलति भयो ॥४॥
सरब प्रकार गुरू सरबज़ग।
हम तिन अज़ग्र कहां अलपज़ग।
तिम बोलैण मैण जथा बुलावैण।
नर पुतली को जथा नचावैण ॥५॥
सोअू निज मुख बोलि सुनावहि।
लोक लखहि पुतली सु अलावहि।
पूरब सुनह करम की गाथा।
नरक सुरग हुइ जिन फल साथा ॥६॥
तीन बिधिनि के करम पछान।
संचति, परालबध, किरेमान५।
१प्राणी भानक करमां दे बंधनां विच पिआ है।
२भाव करमां दा।
३जिस (करमां दे निरने) दे जाणन ते (प्राणी आपणे आतमा) ळ बचावंा करे।
४सोइ=दया सिंघ।
५क्रिय मान।