Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८)३८४
५६. ।श्री हरिराइ जी ळ वर॥
५५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>५७
दोहरा: इस प्रकार श्री सतिगुरू, दे दे करि बर सार।
कीनि बिलद अनद जुति, अपनो सरब प्रवार ॥१॥
चौपई: गुर तन तजिबे को बड रौरा।
मिलि मिलि करहि बैठि बहु ठौरा।
आप अछत ही सभि समुझाए।
जथा जोग पद को गन पाए१ ॥२॥
रिदा शांति बर ले करि होवा।
तअू चलनि गुर को ढिग जोवा।
परो सरब परिवार खभारू२।
सोचति सोचन, संकट भारू ॥३॥
-किस को सुध का होइ पिछारी।
हुते समरथ लेति संभारी।
अलप बैस महि तखत बिठायो।
अपर नहीण कोअू बडिआयो ॥४॥
शाहु संग नहि मेल, बिखेरा३।
सो पुरशारथ करहि बडेरा-।
इज़तादिक बहु रहे बिचार।
निज निज तकहि अलब अुदार ॥५॥
इक दिन नर सरूप धरि आए।
बंदन गीरबान समुदाए४।
अगनि, परोगम५, सुरपति आदि।
दरशन देखि भए अहिलाद ॥६॥पद अरबिंद बंदना धारी।
गुरू इकाकी संग अुचारी।
हे प्रभू! जग के काज सुधारे।
संत अुबारि दुशट गन मारे ॥७॥
१सारिआण आपो आपणी जोगता दी पदवी ळ पाइआ।
२छंभ।
३बखेड़ा है।
४सारे देवतिआण ने बंदन कीती।
५आगू देवते। अज़गे चलं वाले।