Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ३८६
५०. ।दिज़ली जाण दी तिआरी॥
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दोहरा: श्री गंगा के बाक सुनि, ब्रिध भाई गुरदास।
लखहि भविज़खति सगल गति, बोले करति प्रकाश१ ॥१॥
चौपई: माता जी! सुनीअहि हम कहे।
श्री हरि गोबिंद सभि गति लहे।
होनिहार इन ते नहि छानी।
जो करनो सगरो मन जानी ॥२॥
प्रथम सपथ हित चंदू मारनि।बैठि सभिनि महि कीनि अुचारनि।
दुतीए गुर अरजन बिरतांति।
होवनि लगो अबहि बज़खाति ॥३॥
पलटो लैबे को अबि समोण।
दिज़ली चलोण इही मत हमो२।
बिना चले नहि मारनि होइ।
पूरन करहि सपथ करि जोइ३ ॥४॥
श्री अंम्रितसर बसहु सुखारे।
जहांगीर नहि करहि बिगारे।
आगे शाहिजहां जबि होइ।
जिम गुरु करहि, बरति है सोइ ॥५॥
अबि चंदू को गरद मिलावहु।
सुजसु बिसाल जगत महि पावहु।
इक वग़ीर खां नित ढिग शाहू।
सतिगुरु को सेवक सुख चाहू ॥६॥
तिन ने सरब बाति समुझाई।
-चलहि गुरू, चंदू लेण घाई४।
जहांगीर चहि फरग़ अुतारा।
लिहु पलटा जिस ने गुर मारा- ॥७॥
नहि आछे कुछ करनि बखेरा।
१प्रगट।
२साडा है।
३जो कीती है।
४चंदू ळ मार लैंगे।