Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ३९१
४३. ।इक अनपड़्ह सिज़ख। कबीर जी दे समेण दा पातशाह॥
४२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>४४
दोहरा: *इक दिन बैठे सतिगुरू, सिख संगति चहुफेर।
एक सिज़ख तहि आइ कै, बिनै करी तिस बेर ॥१॥
चौपई: साचेपातिशाहु गुर पूरे!
आनि परो मैण शरनि हग़ूरे।
दुखी संसार दिशा ते होवा।
रहो बिचार नहीण सुख जोवा ॥२॥
दिहु कज़लान क्रिपा कहु ठानहु।
जनम मरन दुख अरु अघ हानहु।
पढो नहीण मैण बिज़दा कोई।
बरण गुरमुखी लखे न सोई ॥३॥
गुरू कहो तूं धंन महाना।
भयो विराग जगत दुख माना।
पर भाई सिज़खा! मन चीनि।
मूढ न समुझहि पढे बिहीन१ ॥४॥
दोहरा: अनपढ अंधा जो चलहि२,
समुझ न आवहि काइ।
बाणी जिस की शुज़ध है, तिसै मिलै हरिराइ ॥५॥
चौपई: चहीअहि पढो अलप कै घनो।
बुधि सुध परै सुधारै मनो३।
गुण अवगुण करिबो अनुकरबो४।
जाने सभि की सुध अुर धरिबो ॥६॥
पढन बिखै गुन अहैण अनेकू।
सदगुन प्रापति आदि बिबेकू।
यां ते पढन अहै बहु नीका।
अनपढ रहै अंध नित हीका५ ॥७॥
*हुण इह सौ साखी दी १९वीण साखी चज़ली है।
१पड़्हे बिनां मूरख समझ नहीण सकदा।
२अनपड़्ह (पुरश) अंन्हे (जो = जोण) वाणू चलदा है।
३बुज़धी शुध हो जाणदीहै मन सुधार लैणदा है।
४ना करन योग।
५हिरदे दा अंधा।