Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) ३९१५१. ।खंभां दुवारा अुपदेश॥
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दोहरा: थिरो खालसा पास गन हुकम करो महाराज।
दूर दूर लगि खरे रहु* बान खोजिबे काज ॥१॥
चौपई: सुनि करि सिंघ धाइ करि गए।
खरे सैणकरे होवति भए।
पूरब दिशि श्री मुख को करि कै।
चांप कठोर आप कर धरि कै ॥२॥
खैणचो बान संधि कै बल ते।
सकल बिलोकति हैण तिस चलिते।
कहो गुरू देखहु नभ जै है१।
राखहु द्रिशटि तरे अुतरै है? ॥३॥
छोरो जबै, महां धुनि होई।
गरजि सुनी सभि, गमनो सोई।
रहे देखते द्रिगन लगाइ।
गयो अुतंग न परै दिखाइ ॥४॥
बहुर दूसरो तागनि कीन।
तीसर चांप ऐणचि तबि दीन।
तिम ही चौथे दियो चलाइ।
बहुर पंचमो गाजति जाइ ॥५॥
सभ सोण कहि कहि तागन करैण।
अूपर दूर द्रिशटि नहि धरैण।
देखति रहे खरे सभि होइ।
-आवहि तीर२- प्रतीखहि सोइ ॥६॥
बीतो जाम रहे तहि ठांढे।
हटि नहि आए, अचरज बाढे।
पुनसभि सतिगुर निकट पहूचे।
प्रभु जी! देखि रहे हम अूचे ॥७॥
गए गगन महि फिरे न फेरे३।
*पा:-होइ।
१अकाश ळ जाणदा है (बाण)।
२तीर आवेगा।
३(बाण) वापस नहीण मुड़े।