Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) ३९२
४२. ।आतम विचार॥
४१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>४३
चौपई: पुन सिंघन बूझनि करो कहो रूप अज़गान१।
माया२, बहुर अबिज़दिआ३, बंधन४, मोख५ बखानि ॥१॥
चौपई: जाग्रत६, सुपन७, सखोपति८ तीन।
एह अवसथा कहो प्रबीन!
मुरछा रूप९, समाधि१० कहीजै।
तुरी अवसथा११ रूप भनीजै ॥२॥
इक साखी१२ अरु जीव१३ जि होइ।
जस इन रूप बखानहु सोइ।
प्रनहु ब्रहम निरनै* करि लहो।
१४
पंच कोश१५ को रूप सु कहो ॥३॥
पंद्रह प्रशन सुने सभि कान।
दइआ सिंघ जी करति बखान।
जिस पर गुरू प्रसंनता धरैण।
सुनि कै दिढ निशचै सो करै ॥४॥
सुनीअहि सभि के रूप बखानोण।
गुर करुना ते मैण जिम जानोण।
जिस जाने अर निरनै करे।जग सागर ते सो नर तरे ॥५॥
सैया छंद: १बिन अकार, बिन जनम, अनादी
रहि इक देश ब्रहम के मांहि।
नाम अज़गान२, लिए खट संगा
इक चितंन वापक विच तांहि३।
१
चेतन२, सो सबंध ईशरता३,
चतुरथ संगा जीव बजि आहि।
ईशुर जीव विभाग५ पंचमो
चिदा भास६ खशटम लखि वाहि ॥६॥
*पा:-पुन ब्रहम को।
१अगान दे लछण चज़ले।
२(पिछे कहे दा) नाम अगान है।
३(इस अगान दे कारन) छे संगा (हो गईआण हन, यथा-) वापक चैतंन इक।