Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ३९६५३. ।जमना पर इशनान दी शाह ळ बर॥
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दोहरा: इज़तादिक तरकति महां, तुरकेशुर मतिमंद।
नाश करो चहि राज को, हतसि प्रताप बिलद ॥१॥
चौपई: इस प्रकार गुर कैद मझारा।
करहि बिलास अनेक प्रकारा।
होवहि दिनप्रति बहु तकराई।
सायुध१ खरो रहहि दर थांई ॥२॥
रात दिवस महि एक समाना।
दिढ हुइ राखै देखहि थाना।
जाम जामनी जबिहूं रहै।
तबि सतिगुर मज़जन को चहैण ॥३॥
अुठि प्रयंक पर ते ततकाल।
तजि बंधन सभि तहां क्रिपाल।
तारो खुल, कपाट छट जाहि।
तब काराग्रिह ते निकसाहि ॥४॥
थिरो रहै तहि पिखहि सिपाही।
जिस की द्रिशटि परहि कुछ नांही।
मंद मंद जमना दिस जाते।
तट पर खरे होइ पुन नाते२ ॥५॥
मंद मंद निस महि चलि आवैण।
तिसी रीति बंधन पर जावैण३।
थिर प्रयंक पर तैसे होइ।
जथा प्रथम ही कीने सोइ ॥६॥
जब के कैद बिखै गुर आए।
इस बिधि मज़जन करि मनभाए।
एक दिवस श्री गुरू पयाने।
पावन जमना हेतु शनाने४ ॥७॥
दीरघ महिजिदि बिखै मुलाना।
१शसत्रधारी (सिपाही)।
२न्हाअुणदे हन।
३पै जाणदे हन।
४शनान करन लई।