Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ३९७४४. ।लगर दी सेवक इक सिज़खंी॥
४३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>४५
दोहरा: बीतो फागन चेत जबि,
निकट मेख संक्रात१।
दरशन परसन गुरू के,
गन संगति अुमडाति ॥१॥
चौपई: दिन प्रति जस पसरहि जग जोण जोण।
मेला अधिक मिलति है तोण तोण।
चहुंदिशि ते संगति चहि ऐसे।
गन चकोर ससि२ प्रेमी जैसे ॥२॥
३जनु घन घटा घोख कहु चाहति।
दास कलाप कलापि अुमाहति८।
बंधि टोल पर टोल बिसाले।
चलहि पंथ मिलि मिलि सिख जाले ॥३॥
गावहि शबद प्रेम रंग राते।
भाअु परसपर करि हरखाते।
आपस महि सेवहि अनुरागी।
गुर की भगति अधिक चित जागी ॥४॥
नई रीति धरि शुभ मति मते४।
वाहिगुरू जी की कहि फते।
जुगम समै कंघा करि लेना।
होइ सुचेत शबद मन देना ॥५॥
बैठहि हंसनि की सम पंगत५।
गुरू पंथ की अदभुत रंगत।
सोहित केशन शमश समेत।
मनहु जनाइ देवतनि भेत६ ॥६॥१विसाखी।
२चंद्रमां।
३जिवेण गूहड़ीआण घटां दी गरज ळ चाहुंदे हन मोर (तिवेण) सारे दास अुमाहुंदे हन ।संस:, कलाप
= सारे। कलापी = मोर।
४मसत होए
५हंसां वरगी पंगत विच।
६मानोण देवतिआण दे भेत ळ जंाअुणदे हन, भाव आदि दी रीत केस दाहड़ा समेत देवतिआण दी है ते
सिज़ख देवते हन।