Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ३९८
५२. ।तीसरी सगाई॥
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दोहरा: मज़द्री* अुतरे गुरु प्रभु, दासनि लाइ तुरंग।
फरश कराइ बिसाल को, बैठे सिख भट संगि ॥१॥
चौपई: ग्राम बिखै नर सुनि सभि आए।
अरपि अुपाइनि सीस निवाए।
सेवा सरब करी गुरु केरी।
इक सिख ने भाखो तिस बेरी ॥२॥
श्री अरजन को आसा१ इहां।
पग की पनही अुज़तम महां।
सुनिसतिगुर सो निकटि मंगाए।
करि दरशन सभि सीस निवाए ॥३॥
जेठे बूझो गुरु किस कारन?
दिए तुमहि, सो करहु अुचारन।
सुनि सिख मांिक जिस को नामू।
कहिबे लगो प्रसंग अभिरामू ॥४॥
श्री अरजन जी इस थल आए।
सिज़ख किदारा मिलो सु धाए।
डेरा धरमसाल करिवायो।
सेवा करति अधिक चित चायो२ ॥५॥
हुती हजीराण गर महि तांही।
देति बिखाद, मिटति सोण नांही।
केतिक करि अुपाअु को हारा।
नहि किस औखधि रोग निवारा ॥६॥
जतन करनि ते पुन हटि रहो।
एक अलब गुरू को लहो।
सिज़खी बिखै सदा सवधान।
सेवा करति सप्रीति महान ॥७॥
जाम जामनी जबि रहि गई।
*इह पिंड शेखूपुरे दे ग़िले विच है।
१सोटा। ।अ: असा॥
२चिज़त दे चा नाल।