Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४०७

केतिक नीर आनिबो करिहीण।
संगति को सेवहिण हित धरिहीण ॥१३॥
महां कुलाहल मेला होवा।
हरखति संगति दीरघ जोवा१।
करहिण परसपर भाअु बिसाला।
अुचरहिण मिलि गुर को जसु जाला ॥१४॥
अति अनद संगति महिण होइ।
सुखि मेले को लहि सभि कोइ।
कितिक समो बीतो जबि जानो।
श्री सतिगुर किरपाल बखानो ॥१५॥
रामदास को चिर बहु होवा।
कहां गयो हम निकटि न जोवा।
सेवक बज़लू कहो सुनाइ।
संगति की बहु सेव कमाइ ॥१६॥
देग तार करि देह अहारा।
पंकति को बिठाइ इक सारा।
सीतल जल को भरि भरि लावै।
बूझि बूझि संगति को पावै ॥१७॥
छुधा पिपासा सभि की हरै।
बाणछत सिज़खनि दैबो करै।
कर महिण गहै बीजना फेर।
बायू करति अुशन२ बहु हेरि ॥१८॥
सभि संगति को खुशी करंता।
इत अुत फिर कै सेव बुझंता३।चहे जु देहि अहार कि पानी।
इस प्रकार की सेवा ठानी ॥१९॥
यां ते नहिण आवन तिस केरा।
रहो रुकयो जहिण काज बडेरा।
सुनि श्री सतिगुर अमर प्रसंन।


१बड़ा (मेला) देखके।
२गरमी।
३सेवा पुज़छदा है।

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