Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४०९

पिखि प्रभाअु१ सतिगुर बडिआई।
निदक दुशट महां दुख पाई ॥२७॥
मेला बिछुरे पुरि पुरि गए।
गुरू ब्रितांत सुनावति भए।
पंथ नवीन प्रकाशन करो।
भेद बरन जाती परहरो ॥२८॥
चतुर बरन इक दे अहारा।
इक सम सेवहिण धरि अुर पारा।
चरनांम्रित को दे सिख करैण२।
वाहिगुरू सिमरहिण हित धरैण ॥२९॥सुनि खज़त्री दिज गन अज़गानी३।
परम अभगत जाति अभिमानी।
जरहिण न४ गुरकी सिफति अुदारा।
कहैण सु का परपंच पसारा? ॥३०॥
इक दिन मिलि सभि मसलत करी।
इहतो रीति बुरी जग परी।
अबि दिज को नहिण मानहि कोइ।
खज़त्री धरम नशट सभि होइ ॥३१॥
चतुर बरन को इक मत करयो।
भ्रिशट होइ जग धरम प्रहरो।
इक थल भोजन सभि को खई५*।
शंकरि बरन६ प्रजा अबि भई ॥३२॥
देव पितर की मनता छोरी।
सभि मिरयाद जगत की तोरी७।
अबि अुपाइ इक करन पुकार८।

१प्रताप।
२सिज़ख बणांवदे हन।
३अगानी खज़त्री ते पंडत समूह सुणके।
४सहारदे नहीण।
५सभ किसे ळ खुवाणदे हन।
*पा:-थिई।
६जात भेद दा नां रहिंा, जातां दा रल मिल जाणा।
७तोड़ दिज़ती।
८(बादशाह पास) फरियाद करन दा है।

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