Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ४०७

५१. ।भाई गड़्हीआ। मीआण दौला॥
५०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६ अगला अंसू>>५२
दोहरा: सिज़ख हुतो गड़्हीआ महां,
रहि हग़ूर लहि गान।
चरन कमल सेवति सदा,
करि करि प्रेम महान ॥१॥
चौपई: श्री हरिगोविंद बली बिलद।
सिज़ख चकोरनि को नित चंद।
गड़्हीए प्रति आगा फुरमाई।
अबि कशमीर पुरी कहु जाई१ ॥२॥
तहि की कार सकेलि बिसाला।
ले आवहुइत, रहि कित काला।
सुनि गड़्हीए करि रिदे अनद।
मानी आगा दै कर बंदि ॥३॥
बंदन करि कै पद अरबिंद।
गमनो मारग प्रेम बिलद।
नित प्रति चित मूरति गुर राखे।
रसना सज़तनाम को भाखे ॥४॥
सनै सनै चलि कै गुजरात।
पहुचति भयो हुतो बज़खात।
बसहि गुरू के सिख समुदाइ।
तिनहु सुनी गड़्हीआ पुरि आइ ॥५॥
सभि संगति इकठी हुइ करि कै।
हित सनमान भाअु बहु धरि कै।
मिले जाइ करि निम्री होए।
मनहु गुरू को दरशन जोए ॥६॥
अपने ग्रिह महि आनि अुतारे।
ता ते जल ते चरन पखारे।
सुंदर सिहजा तबै डसाइ।
अधिक भाअु करि दिए बिठाइ ॥७॥
सभि सिज़खनि चरनांम्रित लीना।


१जा के।

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