Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६)४१२
५३. ।कज़ल्हे ळ क्रिपान बखशी। दीने पहुंचंा॥
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दोहरा: सुनो स्राप गुर ते जबै,
बिसमो कज़लाराइ।
-मैण संगी तुरकान को,
तिनहु संग जड़्ह जाइ ॥१॥
चौपई: रहो समीप नहीण कर जोरे।
नहि बखशायहु गुरू निहोरे।
अबि भी समो लेअुण बखशाइ-।
इम निशचै मन महि ठहिराइ ॥२॥
अुठो सभा ते जुग कर जोरे।
श्री प्रभु, क्रिपा करहु मम ओरे।
दास कदीमी रावर केरा*।
तुरकनि सन किछ हितु नहि मेरा ॥३॥
तिन के साथ न मोहि मिलाओ।
अपन श्राप ते प्रथक बचाओ।
श्री गुर कहैण प्रथम के समै१।
अपने हेत कहिन थो हमै२ ॥४॥
देति श्राप को लेति बचाइ।
तुरकन गन ते प्रथक बनाइ।
सुनति राइ कज़ले तबि कहो।
इतो कोप मैण नाहिन लहो ॥५॥
अबि भी शरन परे की राखहु।दास जानि बखशन अभिलाखहु।
मेरो राज तेज रखि लीजै।
परो शरन अबि करुना कीजै ॥६॥
पुन श्री गुर तिह संग बखाना।
मिटि किम सकहि जि सचु हुइ जाना।
*इस तोण सिज़ध होइआ कि कज़ला निरा धरमी पुरख ही नहीण सी पर गुरसिज़ख बी सी। इसे करके
गुरू जी इस पास पुज़जे हन ते इस करके अुसने अती सेवा ते पिआर कीता है, जिवेण सज़का पुज़त्र
या सज़चा मुरीद कर सकदा है।
१पहिले समेण।
२आपणे (बचंे) लई साळ कहिंा सी।