Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४२१

सनमानित सनमुख थिर थीवा।
मनहुण प्रेम दीरघ की सीवा१ ॥५५॥
बूझो कहु ब्रितांत सुलतान२।
किमि दिज बाहज कीनि बखान?
तुम ने को अुज़तर दे मोरे३*?किमि अकबर कहि कीनस हौरे४? ॥५६॥
हाथ जोर बिरतांत बखाना।
सुनहु प्रभू! किछु जाइ न जाना।
पाठ करन गाइज़त्री चहो।
सभि नर अरु अकबर ने कहो ॥५७॥
नहिण मै जानति हुतो अगारी।
बच सणभारि तुम भुजा निहारी।
सरब गात+ ततछिन हुइ आइव।
पूरब ओअंकार सुनाइव५ ॥५८॥
सुनि धुनि चज़क्रित चित महिण चमके६।
सको न कहि को तब बच सम के७।
सतिगुर धंन बखानति शाहू८।
भा प्रताप तुमरो सभि मांहू ॥५९॥
इक पठिबो गाइज़त्री तबै++।
भए मौन नहिण बोले सबै।
सुनि सतिगुरू प्रसंन महाना।
बूझो, हम हित का तुम आना? ॥६०॥
नगर बिसाल बिखै चलि गयो।


१हज़द।
२बादशाह दा।
३मोड़वाण अुतर की दिज़ता (अ) मोड़े।
*पा:-तुमने सुनो अुज़तर दे मोरे।
४हौले कीता (ब्राहमण खज़त्रीआण ळ)।
+पा:-सरब गान।
५सुणाइआ।
६चमक-दिल दी अुह हैरानी जिस विच सारी सटीपटी भुज़ल जावे।
७बराबरी दे वचन।
८शाह ने कहिआ सतिगुर धंन हन।
++पा:-इक किय पाठ गाइत्रीजबै।

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