Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ४१९

५५. ।सगाई बाबा गुरदिज़ता॥
५४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>५६
दोहरा: इस बिधि बीतो समोण बहु, सतिगुर हरिगोविंद।
करहि अुधारनि गन नरनि, सुनि जसु आवहि ब्रिंद ॥१॥
चौपई: बीति गई बरखा रुति जबै।
सरद सुंदरी दीपति१ तबै।
दीपमाल को लखि आगवनू।
चहुदिशि के सिख तजि तजि भवनू ॥२॥
इकठी करे गुरू की कार।
दरशन गुर अभिलाखा धारि।
वसतु अजाइब ले ले चले।
आनि सुधासर मेला मिले ॥३॥
चारहु बरन चारि आशरमी।
दरशन हित आवति गुरु मरमी२।
नर नारिनि को मिलि समुदाया।
चहुदिशि ते आवति मग छाया ॥४॥
राअु रंक अभिलाखति आए।
निशकामी सहिकामी धाए।
भगत सप्रेम किधौण ब्रहम गानी।
दरसहि जिन गुरु महिमा जानी ॥५॥
बासहि सागरमहि दिन रैन।
पट पालो भी आलो है न३।
काजर को कोठा बडि कारो४।
करहि कार बिच संझ सकारो५ ॥६॥
तअू शामता छुई न लेश।
अुज़जल पोशिश रहे हमेश।
जेतिक महां अग़मती नर हैण।


१सहावंी सरद (रुत) प्रकाशत होई तदोण।
२गुरु जी दे भेती।
३भाव संसार रूपी समुंदर विच वसदिआण श्री गुरू जी दा अंतहकरण रूपी बसत्र दा पज़ला नहीण
गिज़ला होइआ।
४कज़जल दा बड़ा काला कोठा।
५कंम करदे हन विच शाम सवेरे।

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