Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४२२
का वसतू तहिण लावति भयो।
हाथ जोरि कहि तुम सभि जानो।
जथा बसत्र पहिरावनि ठानो ॥६१॥
बिना मोल ते अरपन करे।
रावरि अुचित जान करि खरे१।
बिन रुति फल रसाल को आगे२।
पिखति भयो, बहु सुंदर लागे ॥६२॥
आनो मोल आप के कारन।
तूरन कीनसि पंथ पधारन।
निकट रहो पुरि अपने आवनि।
हुतो पाक रसु लाग चुचावन३ ॥६३॥
फूट गयो रस निकसति जाना।
पहुणचो भैरोणवाल सथाना।
अरपो धरि करि धान तुमारा।
हुइ निसंक निज मुख महिण डारा ॥६४॥
पूरन सभि घटि बिखै क्रिपाल।
राखहु शरधा जन४ सभि काल।
अरपति जे तुम को जन लोग।
भोगति हो इह रावरि जोग५ ॥६५॥
प्रेम मगन सतिगुरू सुनाइव।
फल रसाल जो मम हित लाइव।
सो हम खायो गुठली धरी।
बज़लू तबहि दिखावनि करी ॥६६॥
रामदास अरु नर गन सारे।
हेरति अचरज थिरे** बिचारेण६।
-श्री सतिगुर नित भाअु अधीना-।१खलोके (अ) चंगे (कपड़े)।
२अंब अगेतरे (अ) (लाहौर विच) बेरुते अंब दे फल आ गए हन।
३पज़के सन रस चोवं लग पिआ।
४दासां दी।
५तुहाडे लैक (समझके जो शै) तुहाळ दास लोक अरपदे हन, तुसीण भोगदे हो।
**पा:-रिदे।
६विचारन लगे।