Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) ४२०

५४. ।राइ कज़ले दी वंश दा हाल॥
५३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ६ अगला अंसू>>५५
दोहरा: कुछ प्रसंग है राइ को१, दई गुरू तरवार।
सुनीअहि श्रोता प्रीत धरि, करि हौण अबहि अुचार ॥१॥
चौपई: हरखो राइ सदन ले आयो।
सुंदर एक प्रयंक डसायो।
चारु बिछौना अूपर छाए।
पूजन सौज लाइ समुदाए ॥२॥
अतर फूल की माल बिसाला।
चंदन अति सुंदर गंधाला२।
धूप धुखाइ आरती कीनि।
चंदन चरचति सुमनसु लीनि ॥३॥
तिस प्रयंक पर खड़ग टिकायो।
पूजहि शरधा भाव वधायो।
दीपक घ्रिज़त पाइ नितजारे।
नित ही फूल माल को चारे ॥४॥
खीन खाफ की तूल रजाई।
हिम रुति महि असि अूपर३ पाई।
रहै अंगीठी आगै धरी।
फिरहि चौर सुंदर सभि घरी ॥५॥
ग्रीखम रुत महि पोशिश धरी।
पट बनारसी दुपटा ग़री४।
घनी सुगंधि अतर ते आदि।
नित प्रति पूजहि करि अहिलाद ॥६॥
बायु करहि बिजना को फेरै।
इस बिधि धारहि भाअु बडेरै।
बय को भोगि भाअु चित लोरि।
कज़लेराइ दयो तन छोरि ॥४७॥
तिस पाछै सुत गादी बैसा।

१भाव, राइ कज़ले दा।
२सुगंधी वाला।
३तलवार दे अुज़ते।
४बनारसी रेशम दा ग़रीदार दुपज़टा।

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