Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ४२१

५३. ।बाबा बुज़ढा प्रलोक गमन॥
५२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६ अगला अंसू>>५४
दोहरा: ग्राम नाम रमदास के, तहां ब्रिज़ध के धाम।
करे बितावन दिन कितिक, ब्रहमानद बिज़स्राम१ ॥१॥
चौपई: तजनि सरीर समा नियरावा।
सकल भेव बुज़ढे लखि पावा।
रिदे मनोरथ ऐसे कीनि।
अंत समो अपनो ढिग चीनि ॥२॥
-श्री हरि गोविंदु होवहि तीर।
जबि मैण तागनि लगौण सरीर।
देखति आगै रूप मुकंदा।
जिस को चाहति मुनिजन ब्रिंदा ॥३॥
अपर काज इक और लखाअूण।
निज सुत को अबि++ कर पकराअूण।
अुचित अहै मो कहु इहु करनी।
हम सगरे सतिगुर की शरनी ॥४॥
लोक प्रलोक आदि अरु अंत।
हमरो नहि को, बिन भगवंतु-।
इम बिचारि करि सिज़ख हकारा।
भाअु सुमति जिस बहु अुर धारा ॥५॥निकटि बिठाइ सकल समुझाई।
गुर ढिग गमनहु बिलम बिहाई।
मम दिशि ते इह बिनै सुनावहु।
-दास कदीमी लखि करि आवहु ॥६॥
जिम कुरखेत्र बिखै रण ठाने।
क्रिशन हसतनापुरी पयाने।
सभि पांडव को ले करि साथ।
अभिसेणचो२ धरमज नरनाथ ॥७॥
सर३ सिहजा पर भीशम परो।

१ब्रहमांनद विच टिक के।
++पा:-तिन।
२भाव गदी दिज़ती।
३बाण दी।

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