Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ५४
५. ।शाह दी सैनां दी चड़्हाई॥
४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६अगला अंसू>>६
दोहरा: मीर शिकार सअूर सभि, करिबे चहति पुकार।
मनहु चमूं मरिवाइ करि, सुधि को करति अुचार ॥१॥
चौपई: शाह जहां के खरे अगारी।
जबहि द्रिशटि इनि की दिशि डारी।
बूझनि करे, खरे किम भए?
बाग़ पिछारी केतिक गए? ॥२॥
पकरो जाइ कि अुडि कित गयो?
मुख मलीन तुमरो द्रिशटयो।
सुनि बोले गुरु हरिगोविंद।
अुतरो हुतो संग भट ब्रिंद ॥३॥
अुडो बाग़ तिनि ढिगि चलि गयो।
सहत सुकाब बिलोकन कयो।
अपनो बाग़ छोडि तिनि दीना।
छुटति बिहंग मारि सो लीना ॥४॥
ततछिनि दोनहु तरै अुतारे।
गहि लीनो अुर आनद धारे।
कितिक देरि पाछे हम गए।
गुरु ढिग बाग़ बिलोकति भए ॥५॥
कहो तबै -इह हग़रत बाग़।
बिचरति इत अखेर के काज।
त्रिपतो पीछे बिहंग चलायो।
करी न चोटि अुडति इह आयो- ॥६॥
सुनि करि कहो -देति हम नांही।
बडो जतन करि पकरो पाही-।
डर रावर को दीन बडेरा।कहिसि कठोर घोर तिसि बेरा१ ॥७॥
सुनि करि एक नहीण मन आनी।
तनक त्रास तुमरो नहि जानी।
जबि हम को भी पकरनि लागे।
१बहुत करड़े (बचन) कहि कहि के (असां ने)।