Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४२६

किरतन सुनहिण अघन परहरैण।
बहुर जेजवा१ तुरकन केरा।
अुलणघहिण तिस को इह सुख हेरा२ ॥१२॥
या ते मिलहिण संग बडिभागे।
चले जाति रस प्रेम सु पागे।
अुलघि बिपासा सलिता सारे।
देश दुआबे बीच पधारे ॥१३॥
सने सने करि तागो सारो।
सतुज़द्रव को पुन आइ निहारो।
बहु गंभीर नीर जिस मांही।
सभि संगति मज़जन करि तांही ॥१४॥
चढि करि तरी भए पुन पारी३।
गमने सतिगुर बहुर अगारी।कबि बड़वा पर करहिण पयान।
कबि गुर गमनहिण चढि झंपान४ ॥१५॥
शमस सेत बहु ब्रिज़ध सरीर।
अतिशै सेत धरे बर चीर।
सुजसु सेत बिसतरहि बिसाला।
तथा सेत मन है सभि काला ॥१६॥
हाथ लशटका बर कद छोटा।
मनहुण भए बावन के जोटा५।
धारति शकति महिद महीआन।
गमनहिण मंद मंद सभि थान ॥१७॥
पहुणचे आन पहोए६ थान।
जहां सरसुती पुंन महान७।


१जेग़ीआ ।अ: जेग़ीआ, अुह मसूल जो मुसलमान पातशाह हिंदूआण तोण तीरथ यात्रा दा लैणदे सन॥।
२भाव जेजीआ ना लगेगा।
३पार।
४खासे ते।
५वामन अवतार दे तुज़ल। (विशळ दा पंजवाण अवतार वामन सी जो बहुता मधरे कज़द दा सी। कज़द
लई द्रिशटांत मातर वरतिआ है कवि जी ने)।
६कुरखेतर, सनातन तीरथ है, अंबाले तोण नेड़े है।
७जिज़थे महां पविज़त्र सरसती नदी है।

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