Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४४७

बाहुनि अुठाइ हनते सु भेट१।
तबि अलकार प्रभु के सु अंग।
रण करति शबद अुठतो अुतंग ॥३२॥
रुंकंति२ चरन नूपर३ सुहाइ।
जिन पर जराअु गन रतन छाइ।
बहु बजति मेखला मज़ध देश४।
अुछलति अुरध जबि बल विशेश५ ॥३३॥
करि कंकन दंड अंगद अुदार६।
डुलयंति करन कुंडल सु चारु।
सिर मुकट बिराजति दिपति जोति।
जनु कोटि दिवाकर७ चमक होति ॥३४॥
वारन प्रहार दावन लगाइ८।
जबि लगै घाव बहु धुनि अुठाइ९।
जिम परहि बज़ज्र भूमीमहान१०।
तिम लगहि मुशट करि हतहि तान११ ॥३५॥
तरजंति१२ महत गरजंति* बीर।
जिम प्रलै मेघ की धुनि गंभीर।
अुछलति नीर बेगै करंति१३।
दस दिशनि पूर शबदै अुठति१४ ॥३६॥


१मिलके मारदे हन।
२छणकदे हन।
३झांजराण।
४तड़ागी लक विज़च (पाई होई)।
५बहुत बल नाल।
६हज़थ दे कड़े, भुज दंडिआण दे बुहज़टे बड़े स्रेशट।
७क्रोड़ां सूरजाण दी।
८(आपो आपणा) दाअु लगाके वार प्रहार करदे हन।
९जद लगे (वार तां) ग़खमां दी अवाज अुज़ठदी है।)।
१०जिवेण प्रिथवी ते (इंदर दा) महांन बज़जर पैणदा है।
११बल करके मारिआ।
१२ताड़ना, धमकाअुणा, दपकना।
।संस:॥ तरजन।
*पा-गरबंत।
१३ग़ोर करदा है।
१४अवाग़ अुठं नाल दसो दिशा भर जाणदीआण हन (शोर नाल)।

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