Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ४५२
५१. ।मोमनी वज़स सिज़खंी॥
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दोहरा: *इक दिन अुठे प्रभाति गुर,
थिरे सभा महि आइ।
केतिक सिख सेवक निकट,
बैठे सुर सुरराइ१ ॥१॥
चौपई: इक सिख नगर२+ सास बड चढो।
भागति आइ बिसम डर बढो।
पहुचो प्रभु के ढिग तिस काला।
बंदन कीनसि हौल बिसाला ॥२॥
हेरि हाल तिस को इस ढारा३।
श्री गुर गोबिंद सिंघ अुचारा।
कहु सिज़खा! सुख है तुव तांई?
किम इम आयहु बहु सहिसाई४ ॥३॥
सुनति पुनहि करि नमो अुचारा।
पातशाह मैण सिख वंजारा।
अचरज हेरति छोरि बिलदा।
तुम ढिग पहुचो लखे अलबा ॥४॥
एक मोमनी५ है इत ओरी।
सिज़खंी निज बसि मैण करि छोरी६।
ऐसो मंत्र पठो तिन कोई।
तिस की बात बखानति सोई ॥५॥
-अबि मैण नहीण सिज़खंी रहौण।इस अनुसारि होनि मैण चहौण-।
कर जोरे हम जितिक निकेत७।
*इह सौ साखी दी नौवीण साखी है।
१जिवेण इंद्र पास देवते।
२किसे नगर दा; पर शुध पाठ नगन चाहीए।
+सौ साखी दा पाठ नगा ही है, नगर एथे लिखारी दी भुज़ल है।
३इसे तर्हां दा।
४छेती छेती।
५मुसलमानी। अंक १७ मूजब मुसलमान।
६(इक) सिज़खंी (अुस मोमनी ने) आपणे वज़स कर छज़डी है।
७जितने कु असीण घर वाले हां।