Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ४५३
५९. ।दुरग गुआलीअर प्रवेश॥
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दोहरा: सुधि भोजन के करनि की, शाहु नहीण सुधि कोइ।
दासनि कहि बहु बारि तबि, अचो कुछक अुठि सोइ ॥१॥
चौपई: चार पांच मूढनि के मति की।
सुनि करि बात चिंत चित म्रितु की।
चढि गज पर गमनोण गुरु ओरे।
बरजे रखे साथि नर थोरे ॥२॥
खुशी न चित को भावति कोई।
तिसी संदेह बिखै ब्रिति होई।
पहुंचो गुरु ढिग बंदन धारी।
अरपी चारु अकोर अगारी ॥३॥
मौन ठानि करि बदन मलीना।बैठो शाह निकट मन दीना।
सतिगुरु चतुर, परखि मुरझायो।
हित बूझनि के बाक अलायो ॥४॥
हग़रत! कहहु कवन है कारन?
जिस ते एव दशा किय धारनि।
बदन प्रकाशति नहीण तुमारा।
मनहु जूप महि मन को हारा ॥५॥
नहीण बिलोचनि बिकसति आछे।
नहि पूरब सम बोलनि बाछे।
को अस काज बिगारो काणहू?
जिस ते खुशी नहीण मन मांहू ॥६॥
कहो शाह का कहौण सुनाई।
असमंजस१ गति कही न जाई।
तअू अवज़श बनी अबि आनि।
सुनहु पीर जी! करौण बखान ॥७॥
साढसती मोरे पर आई।
अपर नहीण कुछ होति अुपाई।
एक जतन सो हाथ तुमारे।
१अंबण।