Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४५९

बिशुकरमे लै तीखन साधनि१।
फेरि तिसी को कीनि खरादनि।
अूपर को तन छोलनि कीना।
निकसो सुंदर रूप नवीना ॥३७॥
धूम्राकार सु तेज जितेक२।
छोलो धरो खराद तितेक३।
निज तन देखि हरख रवि४ भरो।
बिशुकरमे सु बतावनि करो५ ॥३८॥
-अमुकै बन मैण बड़वा तन है६।
निज दारा आनहु हित मनि है-।
सुनि सविता असु को तन धरो७।
सो कानन को जाइ निहरो ॥३९॥
हुती तुरंगनि मिलो सु जाइ।
सूंघि नासका जबि सुख पाइ।
ततछिन दै सुत को अुपजायो।
अशिनि कुमार नाम जिन गायो ॥४०॥
पुज़त्र सहत दारा निज आनी।
मिली सभिनि सोण अुर हरखानी।
तबि की जमना बनमहिण जाइ।
तप को तपति रही बहु भाइ ॥४१॥
दापर अंत भए गोपाल८।
इन को पति कीनसि तिस काल।
अनिक प्रकार भोग सुख घने।
मिली शाम सोण सुत दस जने* ॥४२॥


१तिज़खा हथिआर।
२धूंएण वरगा तेज सी जितना कु।
३तितना खराद के छिज़ल दिज़ता।
४सूरज।
५(हुण) बिशुकरमे ने (आपणी धी दा पता) दज़सिआ।
६घोड़ी दे तन विच है।
७सूरज ने घोड़े दा सरीर धारिआ।
८श्री क्रिशन जी।
*ऐसीआण असज़भ कथा कदे श्री अनद साहिब जी दे करता जी किसे ळ सुणा नहीण सकदे। पौराणक
आखानका दी वाकफी लोकाण ळ देणे लई कवी जी अुथोण दीआण कथा दे रहे हन।

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