Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) ५८
जमना निकट अूच थल हेरे।
खोजहि बंदे को फिरि फेरे।
टेहे ग्राम थेह पर आए।
बैठो तहां देखि हरखाए ॥४॥
फते गुरू जी की कहि बैसे।
हुकम गुरू को पठि करि तैसे।
कितिक समेण लौण जबि थिर रहे।
सिंघन तबहि बाक इम कहे ॥५॥
हम मारग महि चलि करि आए।
तुम थिर प्रथम रहे इस थाएण।
हम अभिलाखहि देहु अहारा।
जिस ते छुधा करहि निरवारा ॥६॥
सुनि बंदे सभि संग बखानी।
मैण कुछ जमा न प्रथमै ठाठी।
अहौण इकाकी सौज न कोई।
बासन बसन असन नहि जोई१ ॥७॥
जिस हित सतिगुर इतै पठाए।
सोअुज़दम कीजहि लिहु खाए।
इम आपस महि करत बखाना।
तिस छिन असन इसत्रीअनि आना ॥८॥
राहक कार करति क्रिखि केरी।
तिन हित लीए जात तिस हेरी।
बंदा कहै सुनहु सिख भाई!
इह गुर पठो छीनि लिहु खाई ॥९॥
प्रथम शगुन भोजन कहु आछे।
अपर वसतु लूटहि सभि पाछे।
सुनि कै छुधति अुठे ततकाला।
सरब रोटिका छीनि अुताला ॥१०॥
जल पर बैठि अचन सो करी।
छुधा अधिक थी सभि परहरी।
इसत्री अधिक पाइ करि रौरा।
१भांडे बसत्र भोजन नहीण देखे।