Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुरप्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४८६
पतित अुधारन बिरद तुमारा ॥६६॥
गुर महिमा की गात न पाई।
का इन के बसि, जग अुरझाई१।
सुनि करि सतिगुर भए प्रसंन।
रामदास! तुझ को धणन धंन ॥६७॥
करि सेवा मुझ को बसि कीना।
मैण जानोण तुझ, तैण मुझ चीना।
पुन लवपुरि के नर समुदाई।
करे बिदा गमने अगुवाई२ ॥६८॥
पद अरबिंद बंदना ठानी।
सेवहिण३ बहुरि करम मन बानी।
करहिण कार धरि चौणप चगूने।
लोक लाज ते होइ बिहूने ॥६९॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे लवपुरि नरनि प्रसंग
बरनन नाम एक पंचासती अंसू ॥५१॥
१जगत विच फस रहे हन।
२अगाहां ळ।
३भाव, श्री रामदास जी सेवा करदे हन।