Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ४८५६३. ।वग़ीर खां लैं आया। राजिआण ळ धीरज॥
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दोहरा: गुर सैनापति नर पठो१, आयहु श्री गुरु पास।
दरशन देखति जोरि करि, नमो करी अरदास ॥१॥
चौपई: हय गन रावर के पुरि मांही२।
घास अलप, कर आवति नांही।
दाने के अधार पर रहैण।
हरे त्रिंनि कहु किमहु न लहैण ॥२॥
देति दरोगे मलिन सु थोरे३।
दुरबल होति आप के घोरे।
सुनि करि श्री हरि गोविंद चंद।
ब्रिध साहिब! तुम सुमति बिलद ॥३॥
डेरा करहु संभारनि सारो।
जबि लगि मेलि न बनहि हमारो।
सभि को दीजहि खाना दाना।
ले करि खरचहु दरब महाना ॥४॥
सकल तुरंग चमूं लिहु संग।
हरो घास पिखि थिरो निसंग।
बाणगर की दिशि त्रिं बहु जहां।
जाइ करहु अबि डेरा तहां ॥५॥
हम जबि करैण हकारनि आवहु।
तावत त्रिंनि तुरंग४ चरावहु।
ब्रिध साहिब गुरु के बच मानै।
भयो तार अभिबंदन ठाने ॥६॥
चलि करि आनि पहूचो डेरे।
निस बसि कै दुरबल अस हेरे।होति प्रात चढि ले दल सारा।
दीरघ पंथ अुलघि निहारा ॥७॥
चले आगरे ते सभि आए।
१गुरू जी दे सैनापती ने आदमी भेजिआ।
२समूह घोड़े दिज़ली विच आपदे हन।
३थोहड़े ते मैले।
४घोड़िआण ळ।