Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 48 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ६३

२. ।कवि जीदे गुर प्रताप सूरज ग्रंथ लिखं दा मुज़ढ किवेण बज़झा।॥

दोहरा: श्री गुर नानक सोण मिलो,
बालिक रूप सुजान।
क्रिपा पाइ ततकाल ही,
प्रापति भा ब्रहगान ॥१॥
चौपई: जिस की बातैण सुनि बुधिवारी।
श्री जग गुर इमि गिरा अुचारी।
बालिक तेरी बैस दिसावति।
बुज़ढे सम मुख वाक अलावति ॥२॥
इतने महिण तिस के पित माता।
आइ गए खोजति निज ताता।
कहति भए हमरो सुत आवा।
तिस देखिनि को मन ललचावा ॥३॥
सिज़खन कहो सु अंतर बैसा।
जाइ निहारो अति ब्रिध जैसा।
बिसम रहो कछ कहो न जाई।
चहिति लिजायो, संगि न जाई ॥४॥
पुनि दंपति ने एव बिचारा।
-जरा ग्रसो तन, जिह सु कुमारा।
अबि का कारज आइ हमारे।
सरब रीति ते सिथलो१ भारे- ॥५॥
कबि बहु रहे, न चाले संगि।
रहिन देहु इह भा ब्रिध अंग।
ऐसे कहि करि गमने धाम।
तबि कहि२ बुज़ढा प्रगटो नाम ॥६॥
गुर घर महिण अग़मति युति भारा।
बोहिथ सम जग तारणिहारा।
अजर जरन महिण धीरमहाना।
अपर न जाण के भयो समाना ॥७॥


१कमग़ोर होइआ है।
२तद तोण।

Displaying Page 48 of 626 from Volume 1