Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ६१
८. ।गुरू जी दा प्रगटना॥
७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>९
दोहरा: मज़खन धीरज धरि रिदै,
हाथ बंदि करि दोइ।
नमसकार करि पुनहु पुन,
पिखि पिखि हरखति सोइ ॥१॥
चौपई: हे सतिगुरु पूरन! करि दया।
सागर पता जु रावर दया।
नमो जनम होवति भा मोरा।
करो निवारनि संकट घोरा ॥२॥
सकल जगत पूरन धन धान१।
सभि के भरता आप महांन।
दे अहार सभि को प्रतिपारहु।
कोट अनत सु जीव संभारहु ॥३॥
मुझ ते धन न चहो हे नाथ!
करो जिआवनि इस मिस साथ२।
सभि ते बडे भाग हैण मेरे।
पूर मनोरथ दरशन हेरे ॥४॥
दुशकर३ साधन साधति जैसे।
फल प्रापति, मेरी गति तैसे।
बडे प्रवाह बिखै बहु बहो।
चहुदिशि ते अलब नहि लहो४ ॥५॥
तिस कोनौका प्रापति होइ।
मैण अपनी गति जानौण सोइ।
जिम शज़त्र के बसि को परो।
छुटहि राज ले, तिम दुख हरो ॥६॥
जथा जीव को गहि ले जाही।
जम किंकर ताड़हि दुख मांही।
पायो चहै नरक महि सोइ।
१सारे जगत ळ धन ते अंन नाल पूरन (करनहार हो)।
२आप ने मैथोण धन नहीण मंगिआ, इस बहाने मैळ जिवाल लिआ है।
३कठन।
४जिसळ आसरा ना मिलिआ होवे।