Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) ६१

५. ।भाई गुरदास काणशीओण अंम्रतसर॥
४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>६
दोहरा: प्रेम महां गुरदास को१, खैणच लीनि गुर चीत।
करो तार तबि मेवरो, पुन परखन की रीति ॥१॥
चौपई: लिखो हुकम नावाण तबि ऐसे।
बरनन करौण सुनावौण तैसे।
काशी ईश गुरू सिख! सुनीअहि२।
तुव ढिग चोर गुरू को जनीअहि ॥२॥
बासकरहि काणशी मैण होइ+।
खोजहु दिहु मुशकाण बंधि सोइ।
नाम अहै तिस को गुरदास।
करि कै कैद पठहु हम पास ॥३॥
तबि हुइ गुर की खुशी बिसाला।
खोजहु चोर पठहु ततकाला।
लिये हुकम नावाण तबि गयो।
काणशी पुरि महि प्रापति भयो ॥४॥
सभा बिखै जहि हुतो महीप।
तिह ठां पहुंचति भयो समीप।
दियो हुकम नामा न्रिप चीना।
करि सनमान सीस धरि लीना ॥५॥
पठि करि सकल जानि अहिवाल।
बूझी सभा सरब तिस काल।
गुर की वसतु कौन लै आवा?
पुरी बिखै हुइ है किस थावा३ ॥६॥
सभि ने भनो न अस को आयो।
जे आयो लिहु नगर खुजायो।
तबि राजे डिंडम४ तहि फेरा।
किह थल गुरू चोर किन हेरा? ॥७॥


१भाई गुरदास जी दे प्रेम ने।
२हे गुरू दे सिज़ख काणशी दे राजा! सुणो।
+पा:-सोइ।
३पुरी दे किसे थां विच होवेगा।
४डौणडी, ढंडोरा।

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