Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ५००

६६. ।बिबेकसर सिरजन॥
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दोहरा: ब्रिध भाई गुरुदास को, आगै करि समुदाइ।
पहुचे पुरी बिलोकि कै, स्री अंम्रितसर थाइ ॥१॥
चौपई: करि शनान हरि मंदिर गए।
हाथ जोरि सभि बंदति भए।
बहुरि प्रदछना चहुदिशि फिरे।
पुरि जल मिले सुनति हित धरे ॥२॥
बूझे अबि सतिगुरु किसि थान?
पुरि जन भनो आपि सभि जानि।
चढे अखेर ब्रिज़ति को गए।
पूरब दिश को सनमुख भए१ ॥३॥
सुनि ब्रिध साहिब रिदारसाले२।
सिज़ख संगि सभि तितु दिशि चाले।
अधिक ब्रिज़छ गाढे गन खरे।
बदरी चलदल आदिक हरे ॥४॥
गए रामसर के तबि तीर।
बैठे तहि ले सिज़खनि धीर३।
गुरु के सनमुख कितिक पठाए।
हमरी सुधि कहीअहि इति आए ॥५॥
आगै सतिगुरु करी अखेरे।
हनि करि बन के जीव घनेरे।
आवति चढे चमूं गन संगि।
चंचल बली कुदाइ तुरंग ॥६॥
जाइ मिले सिख कोस अगारी।
चरन कमल परि बंदन धारी।
हाथ जोरि कीनि अरदास।
ब्रिध साहिब भाई गुरुदास ॥७॥
रावर के दरशन हित आए।


१साहमणे करके।
२प्रसंन रिदे वाले।
३सिखां दा आसरा (अ) बुधीवान, धीरजवान (बाबा बुज़ढा जी)।

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