Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ६३
७. ।राजे दी होर मुसीबतां तोण रज़खा॥
६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>८
दोहरा: सुनि सतिगुर को बचन के,
धरी धीर महिपाल।
हाथ जोरि मन दीन है,
कीरति करति रसाल ॥१॥
चौपई: हे प्रभु! अस कारज नहि कोई।
रावरि शरन परे नहि होई।
मो कहु प्रान दान तुम दैहो।
देश कामरू सर करि लैहो ॥२॥
नांहि त मेरो होति बिनाशा।
नहिमैण जीवन की करि आसा।
सुनि बहुतनि ते सुजसु महाना।
शरन परो तजि करि मन माना ॥३॥
तिस दिन ते पाछै बड छोटे।
मानहि गुर बच कबहुं न होटे।
दोनहु कूलन पर दै डेरे।
परे रहैण पुन काल बडेरे ॥४॥
मंत्र जंत्र प्रेतनि के करैण।
अपर अनेक भांति के ररैण।
बिशन सिंघ के मारनि कारन।
अनिक प्रकारनि के अुपचारनि१ ॥५॥
बहु भूपति के निकटि पठावैण।
सतिगुर दे करि हाथ बचावैण।
जंत्र मंत्र को नहि बल चलै।
जो अग़मतिवंतनि को गिले२ ॥६॥
महां प्रबल जो फिरहि न फेरे।
जिस ते नासहि बली बडेरे।
करते आधि रु बाधि अुपाधा।
बैठि बैठि दिन केतिक साधा ॥७॥
१यतनां ळ।
२जो करामात वालिआण ळ बी खा जाण, निगल जाण।