Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५४३
५९. ।जोगी दूजे जनम विच अनद जी होके जनमे। संसराम जी दा जनम॥
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दोहरा: सो जोगी धरि बाशना, जनमो गुर कुल मांहि।
है अनुसारी वाशना, प्रगटो अपनी चाहि१ ॥१॥
चौपई: श्री गुर अमरदास के नद।प्रथम भए दै शुभ+ जनु२ चंद।
भयो बडो मोहन तिस नाम।
परम विरागवान निशकाम ॥२॥
गानानद३ महिण सदा बिलासहि।
अुर बिकार को लेश न तासहि४।
बड अवधूत इकाकी५ रहै।
किह ते सुनै न मुख ते कहै ॥३॥
मौन धरे मन थिरता गहै।
शुभ गुन गन को मंदर अहै।
नहिन प्रबिरती महिण चित जाणही।
सदा शांति रस साद सु ग्राही ॥४॥
दुतिय मोहरी महां सुजान।
जग बिवहार बिखै बुधिवान।
इस के पुज़त्र प्रथम निपजयो।
नाम अरथ मल तिह धरि दयो ॥५॥
परम भगति गुनि गन अनुरागी।
गुर कुल महिण अुपजो बडभागी।
तिस पीछे सो जोगी आइ।
जनमो महिद मोद अुपजाइ ॥६॥
जिन तप जोग करो बहु काला।
जनमो शरधा धरे बिसाला।
पाइ गान को लहो अनद।
१अपणी इज़छा लैके प्रगटिआ।
+पा:-दैत सुत।
२मानो।
३गिआन दे अनद।
४तिस (बाबे मोहन जी ळ)।
५इकाणत।