Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ६६
८. ।शिकार। होम॥
७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>९
दोहरा: पंच पहिर लौ कितिक दिन, करि कै हमन प्रकार।
सवा पहिर को नेम पुन, कीनिसि बिज़प्र अुचारि ॥१॥
चौपई: श्री प्रभु! किरत घनी इह जानो।
लाखहु परैण अहूती मानो।
इतो बिखम तपु करीअहि नाहि न।
सने सने पुरवहु निज चाहिन ॥२॥
पुन सतिगुर करि सौच शनान।
सवा पहिर बैठैण इक थान।
परै अहूती जेतिक जबै।
मंत्र पठन करि होमहि तबै ॥३॥
अलप अहार करहि प्रभु नीत।
पाइसु आदि शांतकी चीत१।
नहि बहु बोलैण निस दिन मांही।
चितवैण चंडी चित, अन नांही२ ॥४॥इक दिन प्रभू पाछले जामू।
सुज़खा छकि अफीम सुख धामू*।
सौच शनान ठानि करि चहो।
पहिरे बसत्र शसत्र, बच कहो:- ॥५॥
हय पर ग़ीन पाइ ततकालहि।
आनहु निकट अखेरहि चालहि।
सुनति दास आनो करि तार।
ततछिन भए प्रभू असवार ॥६॥
गए बिपन को गहिवर जबै३।
जोधा संग हयन चढि तबै।
करी अखेर बिज़्रत म्रिग मारे।
१चित ळ सतोगुणी रज़खं वाले खीर आदिक (सूखम) भोजन खांदे हन।
२ोहोर नहीण।
*सो साखी विच ही लिखिआ है मदरा दहिता सपत कुल भंग दहै तन एक। इह अुथे गुरू हुकम
करके दज़सिआ है। दूसरे होम करन करौं वाले लई नशे मन्हां हन। पंडत ने अज़गे जाके शिकार ते
इतराग़ कीता है पर भंग अफीम ते किअुण नहीण कीता?
३संघणे बन विच।