Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) ६७

६. ।करमो ते प्रिथीए दी सलाह। दाई लभणी॥
५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>७
दोहरा: निकट निकट जे ग्राम हैण,
सभिनि सुनी सुधि कान।
मंगत गन संगत१ तबहि,
देति बधाई आनि ॥१॥
सैया छंद: नाचहि हीज२ गाइ सुख राचहि,
जाचहि धन, माचहि निज खेल३।ढोलक, टलका४ घुंघरू, ताली
ताल५ मिलाइ, भवाली मेलि६।
हाथनि भावअु सारति शारति७
वारति वथु, डारति बहु बेल८।
बैठति कबहु अमैठति अंगन९,
भौह अमैठति१०, पैठति पेल११ ॥२॥
होति प्रसंन हेरि गुर अरजन
मनबाणछति धन पाइ सु जाइ।
इज़तादिक अुतसव अति बरधति
सेवक सिज़ख रहे हरखाइ।
जिति किति पूरन मोद महां चित
गाइ शबद पद गुरू मनाइ।
बहु नर नारि शिंगार धारि करि
मिले वडाली महि समुदाइ ॥३॥
ग्राम अलप अुतसव अति बरधो

१मंगते सारे (ते) संगत।
२खुसरे।
३मदौणदे हन अपणे खेल।
४टज़लीआण।
५हज़थां दी ताली।
६भुवाटड़ी लैके।
७अुज़चे करके इशारे करदे हन ।फा: इशारत॥
८वेलां पाअुणदे हन।
९अकड़अुणदे हन अंग।
१०भरवज़टे चाड़्हदे हन।
११धज़का मारके (अुस ळ परे कर अुसदी थां आप) मज़ल लैणदेहन। (अ) (इकनां ळ) हटा के प्रवेश
करदे हन (बहुतिआण विच)

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