Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ७१

ब्रहमांकार ब्रिज़ति इक रस मैण।
जिस के नहीण अनिकता द्रिश मैण१ ॥१०॥
इन ते सुत -गुरदिज़ता- होवा।
गुर सिज़खी जिनि मारग जोवा।
अंत समै पद परम पहूणचा।
ब्रहगान महिण जिस मन रूचा२ ॥११॥
-रामकुइर- अुपजो तिह नद३।
जीवन मुकति सु जुगति अनद।
नेति नेति जिस बेद बतावै।
निति अखंड तिस पद लिव लावै ॥१२॥
तुरी अवसथा४ चिज़त अरूड़्हा५।
बिन सतिगुर जो सभि कहु गूड़्हा६।
बालक समता बेद जु कहै७।
तिस महिण सदा बरततो रहै ॥१३॥
कुछक चरिज़त्र कहोण तिस+ केरा।
जथा सरूप सुभाअु भलेरा।
हुती थूलता८ तन सभि थानन९।
लबोदर१० लिहु परख गजानन११ ॥१४॥
सहिज सुभाइक बोलन बनै।
बुरा कि भला फुरै१२ ततछिनै।
इक दिन इक राहक१३ घर मांही।


१द्रिश = जगत विचनानापन नहीण भासदा, इको ब्रहम ही भासदा है। (अ) निगाह विच।
२लगिआ।
३सपुज़त्र।
४चौथी भूमका।
५इसथित होइआ।
६गुज़झा।
७भाव-वेद तुरीआ ळ बालक अवसथा दी तुज़लता देणदा है।
+पा:-तिनि।
८मोटाई।
९सभ थावाण विच।
१०लमा सी पेट।
११गनेश (वत)।
१२फुरदा सी, भाव सज़च हो जाणदा सी।
१३ग़िमीणदार।

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