Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ६९
९. ।मर्हाज किआण दा वज़संा॥
८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>१०
दोहरा: चित प्रमोद काला भयो, मिलि करि सो समुदाइ।
करति भए आगवन को, निकटि गुरू हरिराइ ॥१॥
चौपई: देखि दूर ते जुग कर जोरे।
पहुचे निकटि हरख नहि थोरे।
चरन कमल पर सीस निवायहु।
धंन गरीब निवाज अलायहु ॥२॥
बिरद आपनो सदा संभारहु।
जनु के दुशट अरिशट१ निवारहु।
अबि हम बसहि अनदति धरा।
महां बली शज़त्र रण मरा ॥३॥
सतिगुर लगे बूझिबे फेर।
कहु काले! किम कीनसि फेर?
रचो जंग तुम कौन प्रकारा?
किम बल भयो, शज़त्र किम मारा? ॥४॥
२सुनहु प्रभू! जिम सुनते रहे।संघर बिखै न कुछ बल लहे।
सभि ते दीरघ जिस को जाना।
सो सभिहिनि ते लघु करि माना ॥५॥
वार शकति को३ एक चलायो।
जिस ते कछू घाव नहि आयो।
लगो धकेला समसर आइ।
तोरे दंतनि दीए गिराइ ॥६॥
नहि आगे तिस प्रविशी नोक।
तहि लौ बल करि रही सु रोक४।
यां ते अलप बली मैण जानो।
खैणचि खड़ग मैण ततछिन हानो ॥७॥
श्री हरिराइ सुनति मुसकाए।
१दुखदाई वैरी।
२काले ने जवाब दिज़ता।
३बरछी दा।
४रुक रही।