Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ७८
१०. ।गौरा जनम, भगतू दी नवीण विआहुता दा हाल। जज़से दी बोली॥
९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>११
दोहरा: अपर कथा सुनि गुरनि की,
जंगल देश मझार।
भगतू के सुत दो भए,
बीर बल धारि१ ॥१॥
चौपई: जेशट पुज़त्र गरभ जबि आयो।
नौ मासनि को बास बितायो।समै प्रसूत होनि को भयो।
टिको गरभ महि जनम न लियो ॥२॥
जननी को संकट बड होवा।
करे अुपाइ न कोणहूं खोवा।
तबि सगरे सिख मिलि समुदाए।
पहुचे थिर भगतू जिस थाएण ॥३॥
करामात कामल तुम अहो।
घर संकट को कोण नहि लहे।
सिज़ख सैणकरे तुम ते जाचि।
चाहति हैण दुख ते नित बाच ॥४॥
सुनि भाई सभि भेत बतायो।
अंतर अरो कशट अुपजायो।
दुहु लोकनि को राज अनद।
जाचति साहस२ धरो बिलद ॥५॥
एक लोक को हम तिस देति।
भोगहु राज अनद निकेत।
समुझायो समुझति सोण नांही।
नहि निकसति थिर भा ग्रभ मांही ॥६॥
सुनति सिज़ख मन महि बिसमाए।
दुख हतिबे हित बहुत अलाए।
अंतर बालक हठ करि रहो।
१बली धारी इको जिहे सूरमे।
(अ) इक बड़ा बीर ते बल धारी सी। (मुराद गौरे तोण है)।
२हठ।