Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ८३

प्रथम करहु लवपुरि की सैल।
पुन निज ग्राम गमहु सभि गैल१ ॥३८॥
मारग चले जाहु दिन सारे।
अुतरो संधा सदन मझारे।
इम कहि अरप अुपाइन दीनि।
कितिक दरब अरु बसत्र नवीन ॥३९॥
अधिक भाअु ते रुसद करे२।
हेरिहेरि अचरज अुर धरे।
तिस बड़वा कअु तबि ही लयो।
सुंदर ग़ीन जिसी पर पयो ॥४०॥
गहि लगाम ततकाल अुतारा३।
भे श्री रामकुइर असवारा।
सहिज सुभाइक सो गमनाई४।
चली बीथका५ मनहुण पढाई६ ॥४१॥
अनिक जतन ते जो नहिण चालति।
मन अनुसार पाइ सो डालति७।
इक दिश दोनहु चरन करे हैण।
हेरति पुरि नर* हरख भरे हैण ॥४२॥
गरी बग़ार बिलोकति आए।
जहां खान के सदन सुहाए।
महां सम्रिज़ध८ नगर महिण पूरी।
अनिक प्रकारनि रचना रूरी ॥४३॥
जहिण कहिण नरनि भीर समुदाए।
भूखन बसत्र पहिर हरिखाए।
पुनहि खान निज बैठक मांहि।

१सारा रसता।
२विदा कीते।
३लगाम अुतार दिज़ती।
४चज़ली।
५गलीआण विच।
६मानो सिखाई होई सी।
७(भाई जी दी) इज़छा मूजब पैर ळ सुज़टदी है।
*पा:-पुर को।
८समज़ग्री।

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