Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) ८८

१०. ।गुरू का लाहौर वज़संा॥
९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>११
दोहरा: सुनि सुनि गुर के बचन को, नी१ रीब बिसाल।
बाह अुछाह पछानि कै, गमन ठानि ततकाल२ ॥१॥
चौपई: अनिक बनिक३ रोपर ते आए।
सकल भांति को सअुदा लाए।
पुरि हुशीआरि आदि जे हुते।
तिन महि ते आवति भे इते४ ॥२॥
केतिक गुर सिख संगति आवहि।
तिन के संग अपर मिलि जावहि।
-धन खाटहिगे करि बिवहारो।
मेला लागहि कई हग़ारो- ॥३॥
सुनि सुनि नर ग्रामनि समुदाए।
करि चित चौणप तुरत चलि आए।
हुतो नगर सीरंद५ बडेरो।
तहि बिवहारी मिले घनेरो ॥४॥
बडो बग़ार तहां ते आयो।
बनजहेतु सअुदा बड लायो।
केतिक सिज़ख दरब ते हीने।
सुनि गुर हुकम हरख अुर कीने ॥५॥
-गुर घर ते धन लेहि सुखारे।
खाटहि लाभ करहि बिवहारे।
अुतसव महां बाह को होवै।
बहु दिन लगि गुर दरशन जोवैण ॥६॥
बहु गुन हैण अनदपुरि जाने६-।
मिलि करि साने सभिहिनि जाने७।


१धनी।
२तुरत तुर पए।
३तुरत तुर पए।
४इधर।
५बाणीए।
६जाण विच।
७सभनां ने जाणिआ।

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