Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ८८
१०. ।श्री गुरू जी लाहौर आए॥
९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>११दोहरा: श्री गुरु हरि गोबिंद जी, बैठे लाइ दिवानु।
सकल चमू के भट मिले, आयुध धरे महान ॥१॥
चौपई: सिख संगति बहु ब्रिंद मसंद।
सभि मिलि आए अलप बिलद।
दरसहि सतिगुरु को सुख धरैण।
मनो कामना पूरन करैण ॥२॥
खां वग़ीर तबि चलि करि आयो।
संग सु किंचबेग को लायो।
शरधा प्रेम रिदे अधिकाइ।
नमो करी बहु सीस निवाइ ॥३॥
सादर सतिगुरु निकट बिठायो।
कहो शाहु को सकल सुनायो।
सुनि हग़ूर१ ने धीरज दीना।
लवपुरि चलैण बिलब बिहीना ॥४॥
इम कहि सुनि करि अुर हरखाए।
अपर अनेक प्रसंग चलाए।
बैठे रहे गुरू चिरकाल।
दरशन दे सिख करे निहाल ॥५॥
बहुर प्रवेश महिल महि भए।
निज निज डेरे को सभि गए।
बिधीआ जेठा हरख बिसाले।
गर चंदू के संगरी२ डाले ॥६॥
हाथ चंडालनि के गहिवाई।
आनो गुरु बग़ार के थाईण।
दुरबल भयो सग़ाइन दीनि३।
जरा आरबल बडि बल हीन ॥७॥
सिर मुख पर सुपैद भे बारे४।१भाव श्री गुरू जी ने।
२संगली
३सग़ावाण दे दिज़तीआण।
४वाल।