Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ९३
१२. ।श्री गुर नित बिवहार॥
११ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>१३
दोहरा: खशट मास पुरि महि बसे,
नाना करति बिलास।
चहुदिशि की गन संगतां,
संग मसंद सु दास ॥१॥
चौपई: लै लै अनिक अकोरनि आवै।
दरसहि मनोकामना पावैण।
देश बिदेश जगत महि सारे।
गुर कीरति पसरी सुख सारे ॥२॥
दीपमाल बैसाखी आदि।
मेला होइ संत संबाद।
भजन कीरतन आठहु जामू।
केतिक लिव लागी सति नामू ॥३॥
सिज़ख अनेक मंजीअनि वारे।
निज निज संगति कीनि अुदारे।
फुरहि बाक तूरन बर स्रापे।
अग़मत जुति गुन, गुरू सथापे ॥४॥
सो सभि दरशन को चलि आवैण।
वसतु अजाइब गुर हित लावैण।
चज़क्रवरति जिम महां अधीशा१।
सभि न्रिप आइ निवावैण सीस ॥५॥
तथा तखत पर श्री हरिराइ।
देति दान बहु रहे सुहाइ।
मनो कामना मन ते जाचैण।
केतिक जाचति बचन अुबाचैण ॥६॥
गुपति बिदति दासनि की आस।
पुरवति सगरी देति हुलास।
केचित पुज़त्र कामना पावैण।
केचित बित प्रापति हरखावैण ॥७॥
केचित तन अरोगता जाचैण।
१प्रिथवी पती राजा।