Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) ९४
१२. ।फौजाण दी चड़्हाई॥
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दोहरा: श्री कलीधर गरजि कै,
मेघ मनिद बिलद।
अुज़तर दयो लिखाइ करि,
शोक देनि रिपु ब्रिंद ॥१॥
चौपई: सुनीअहि भीमचंद अभिमानी!
सभि राजनि सन देहु बखानी।
हम ते दाम चहहि जेलैबो।
खड़ग धार सोण करि हैण दैबो१ ॥२॥
तोमर तीरनि सांगनि अनी।
इन तै दै हौ भेदोण अनी२।
शलख तुफंगनि बरखा गुलकनि।
इन ते परखन करि धन अनगन ॥३॥
मूढ अजान न तुम सम कोई।
चहैण दरब, लिहु सनमुख होई।
बजै लोह सोण लोह जुझारे।
लेहु परख तबि दाम करारे३ ॥४॥
कौन सनेह रहो अबि तो सोण।
करिबो चाहति आनि करो सो।
नतु मति समझहु बनीयहि सानो४।
परहु शरन आवहु बच मानो ॥५॥
जुग लोकनि के सुख को लहीअहि।
शरन खालसे की परि रहीअहि।
हठ हंकार छोरि मन मज़धे।
मिलहु आनि करि है बुधि सुज़धे ॥६॥
गुर घर ते चाहहु सो पावहु।
राज समाज भले बिरधावहु*।
१भाव दिआणगे।
२(तेरी) फौज ळ विंन्हके।
३भाव रुपए टंकाके परखके लैंे।
४नहीण तां बुज़धी विज़च समझके सिआणे बणो।
*देखो कैसा साफ कहि रहे हन, कि राजे दा राज खुहणा नहीण चाहुंदे।