Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १०३
तेहणकुल महिण फेरू नाम।
पुंनातम१ सुशील सुच धाम२।
साधी३ दया कौर बर दारा४।
जिन के सुक्रित को नहिण पारा५ ॥६॥
ग्राम हरी के६ धाम बसंते।
निसि बासुर हरि हरि सिमरंते।
श्री गुर अंगद जनमे जिन के।
कहिण लौ कहौण महातम तिन के ॥७॥
जनम हरी के ग्राम भयो है।
आन थान पुन बसन कियो है।
पंद्रहि सत सताहठा७ संमत८+।
फेरू सुत जनमो गुरु संमत९ ॥८॥
पहुणचे श्री नानक की शरनी।
सेवा बिखे नीक करि करनी।
जअु तअु प्रेम खेलं का चाअु।
सिरु धरि तली गली मेरी आअु ॥९॥
इम कहिबो जिनि सफल कियो है।
अति रिझाइ स्री गुरू लियो है।
जिनहुण न अग़मत कहूं जनाई।
अजर जरन ध्रित छिति समताई ॥१०॥
जिन के गुन कहु बरनै कौन।
बानी शेश देख रहिण मौन१०।
१पविज़तर आतमा वाले।
२पविज़त्रता दा घर।
३पतिज़ब्रता।
४स्रेशट इसतरी।
५पुंनां दा पारावार नहीण सी।
६पिंड दा नाम है।७-१५६७।
८साल बिक्रमी ।संस: संवत॥।
+श्री गुरू जी दा अवतार संमत १५६१ दा सिज़ध हुंदा है।
९तुज़ल ।संस: संमित = तुज़ल, (अ) समत = प्रेमी, पिआरा। (ॲ) समति = इक मन वाला,
आशे अनुकूल॥।
१०सरसती ते शेशनाग देखके चुप चाप रहि जाणदे हन।