Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) १००
१३. ।केवल दूलहु ते वग़ीर दे लघण दी आगा लैंी॥
१२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २ अगला अंसू>>१४
दोहरा: भीमचंद सुधि गुरू की,
करति प्रतीखन चीत।
गमनो शीघ्र ढुकाअु हित,
मिलहि अनिक न्रिप मीति१ ॥१॥
चौपई: अुतरि तुरग ततकाल वग़ीर।
पहुचो चलि गिरपति के तीर।
मुसकावति मुख निकटि बिठारा।
२कहो कहां सतिगुरू अुचारा? ॥२॥
सुनि मंत्री कर जोरि बखाना।
कलीधर तुमरो छल जाना।
-अपनो अरथ३ हेतु बन मीता।
पुन ततछिन होवति बिपरीता४- ॥३॥
साहिब करामात गुरु पूरा।
किम पुज सकहि तिनहु ढिग कूरा।
कही जाइ करि अधिक प्रसंसा।
सुनि करि सोढि बंस अवतंशा ॥४॥
कपट समेत जानि नहि मानी।
भरी बीर रस गिरा बखानी।
-इस मग महि नहि अुलघन दै हौण।
रोकि बिलोकति शोकअुपै हौण५ ॥५॥
जे गिर पतिनि बिखै बल भारी।
दल सकेल चलि आअु अगारी।
बिगरे रहहु अनद पुरि जबि के६।
लरिबे तार अहैण हम तबि के ॥६॥
१(जो भीमचंद) जा रिहा सी अनेकाण राजे मिज़त्राण ळ नाल मिला के ढुकाअु लई।
२भीमचंद ने पुज़छिआ।
३अपणे मतलब।
४अुलट, विरोधी।
५रोकाणगा ते देखदिआण देखदिआण शोक अुपादिआणगा, भाव शज़त्र ळ नाश कराणगा। (अ) (जे राजे वलोण
मैण आपणी इस गल विच रोक =) अड़ी वेखांगा तां शोक अुपावाणगा।
६जद अनदपुर (सी) तद दे विगड़े रहिदे हो।