Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) २१
२. ।भाई जज़गा सिंघ शरधालू सेवक॥१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>३
दोहरा: इक सिख प्रेमी गुरू पग, सेव करै दिन रैन।
पज़खा गहि करि बाअु को, झोलति देखति नैन ॥१॥
चौपई: नाम जज़गा सिंघ तिस को कहेण।
चरन पखारहि कर महि गहे।
चांपी करहि प्रेम अुर धरि कै।
पनही झारहि धरहि सुधरि कै ॥२॥
अपर जि खिजमत दार निहारैण।
तिस के संग ईरखा धारैण१।
कटक बाक२ बहु बार कहंते।
जबि गुर ते कित दूर लहंते ॥३॥
निकट रहिन गुर को नहि सहैण।
मनहु शरीक आपनो लहैण।
जज़गा सिंघ कुछ मन नहि धरै।
प्रेम अधिक ते सेवा करै ॥४॥
बहुता नहि बोलै किह साथ।
एक पराइन सेवा नाथ३।
कमल बिलोचन को बिकसावै।
सतिगुर सूरज दरशन पावै ॥५॥
जबि देखै श्री मुख ससि ओरा।
लोचन करै चकोरन जोरा।
अुर की प्रीति गुरू भी* जानैण।
यथा भगति को बिशनु पछानै ॥६॥
इक दिन श्री प्रभु पौढति भए।
दासनि लखो सुपति है गए।
जज़गा सिंघ को निठुरबखानैण।
-जबि कबि सेव अज़ग्र हुइ ठानैण४ ॥७॥
१भाव अुस नाल दूजे खिदमतगार ईरखा करदे सन।
२कौड़े वाक।
३मालक दी इज़क सेवा दे आसरे रहे।
*पा:-ही।
४करदा है।