Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) २२
२. ।बिधी चंद दी आदि कथा अपनी ग़ुबानी॥
१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>३
दोहरा: ले करि अदली संग मैण,
गुर महिमा अुर धारि।
अमीताल१ पहुचति भए,
जागे भाग अुदार ॥१॥
निशानी छंद: आगे श्री अरजन गुरू, बिच सभा सुहाए।
जनु ब्रहमा सुर ब्रिंद महि, अुपदेश अलाए।
धरी अुपाइनि अज़ग्र कुछ, गहि पद अरबिंदा।
ढिग बैठो कर जोरि कै, पिखि दरस बिलदा ॥२॥
अदली ने सभि बारता, गुर निकटि सुनाई।
-आयो अबि सिख होन को, रावरि शरनाई।
रज़खक दीरघ जानि करि, जुगलोक मझारा२।
रहो चहै ढिग आप के, लखि मोख अुदारा३- ॥३॥
सुनि बिनती गुर दा निधि, बहु भए प्रसंन।
चरनांम्रित मो कोहु दियो, करि सिज़ख अनन।
अुपदेशो सतिनाम को, सिमरन दिन रैना४।
करि लीनो मुझ आपनो, करुना रस नैना५ ॥४॥
-चोरी तागहु अबहि ते, आछे मग चालो।
गुरू गिरा६ पठीऐ सुनहु, प्रभु रिदे समालो-।
सुनि गुर ते मैण तबि कहो -मुहि परो सुभाअू।
छुटहि न चोरी चहति चित, इह साच अलाअूण- ॥५॥
सुनि प्रसंन बिकसे बदन, पुन बाक बखाना।
-जे चोरी ते हटति नहि, इम करहु सुजाना।
रंक होइ दुख असन जिह, कुछ हाथ न आवै७।
तिस हित करि अुपकार को, अचि करि त्रिपतावै ॥६॥
१अंम्रतसर।
२दोहां लोकाण विच (आप जी ळ) रज़खक जाणके।
३(आप जी ळ) मुकती दाता लखके।
४सतिनाम दा दिन रात दा सिमरन (भाव लगातारी सिमरन) अुपदेशिआ (मैळ)।
५क्रिपा रस दे नेत्राण(वाले सतिगुर जी ने)।
६गुरबाणी।
७कुछ ना प्रापत हुंदा होवे।