Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) २२२. ।शंकर वरण॥
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दोहरा: प्रजा गई दुख पाइ कै,
राजन पास पुकार।
लुटे ग्राम सभि खालसे,
मारे करे अुजार ॥१॥
चौपई: कोण न करो परजा रखवारी?
जिस ते लेते दाम हग़ारी।
जे नहि चल करि करहु सहाइ।
तौ सभि दून अुजर करि जाइ ॥२॥
भीमचंद ते आदिक राजे।
सुनति प्रजा ते कीनि कुकाजे१।
ग्राम ग्राम महि चमूं अुतारी।
दुंदभि ढोल दीनि संग भारी ॥३॥
चिंतातुर सुनि सुनि सभि भए।
आपस बिखै मेल करि लए।
मिलो हंडूरी अरु जसवाल।
भीमचंद आदिक गिरपाल ॥४॥
अबि गुर दल करि धूम मचाई।
बिना लरे बहु कोण बनि आई।
इत दिशि जे अखेड़ भी चड़्हैण।
करि नुकसान सिंघ दल लड़ैण२ ॥५॥
सभि मिलि इक थल होइ लरीजै।
राज अपनो राखनि कीजै।
ऐसी मार करहु इक बारी।
पुन इत आइ न करे संभारी ॥६॥
आप जि गुर शिकार इतआइ।
फिरिबे देहु न तुपक चलाइ।
जग गुर भयो त का हुइ गयो।
नहीण राज तो हम ने दयो ॥७॥
१माड़ा कंम कीता (जो अज़गे दज़सिआ है)।
२सिंघां दा दल जे लड़े।