Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ११३

१५. ।गौरे दे स्राप बखशे॥
१४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>१६
दोहरा: बेग गयो सतिगुरू ढिग,
डेरा जहां लगाइ।
पहुचो अुतरि तुरंग ते,
खरो भयो अगुवाइ ॥१॥
चौपई: अपराधी बहु आप१ बिचारे।
हाथ जोरि थित भयो अगारे।
श्री हरिराइ बिलोकि क्रिपाला।
मन ते भए प्रसंन बिसाला ॥२॥
निकटि बिठावनहेतु हकारे।
सादर बोले आअु अगारे।
नाहन खरो दूर अबि होहू।
जाचहु लखि प्रसंन मन मोहू ॥३॥
सुनति गुरू के बाक सुहाए।
खरो रहो मुख बिनै अलाए।
अपराधी मैण नाथ तिहारो।
बखशहु अपनो दास बिचारो ॥४॥
सभि बिधि ते हम औगुनहारे।
गुरनि बिरद बखशिंद अुदारे।
करि पावन२, पावन अबि लावहु३।
जुग लोकनि के कशट मिटावहु ॥५॥
तन धन आदिक सकल समाजा।
जो रावर के आवहि काजा।
सो सफलहि नतु बिरथा सारे।
इहै भावना रिदै हमारे ॥६॥
सुनि गुर स्राप मिटावनि लागे।
क्रिपा द्रिशटि पिखि ठांढो आगे।
पाथर, पंनग, मेघनि जोनी।


१आपणे आप ळ।
२पविज़त्र करो।
३चरनीण लावो।

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